गुप्त काल से भारतीय मंदिर वास्तुकला का प्रारंभ माना जाता है क्योंकि यही वह कल है जब मंदिर निर्माण में पाषाण का प्रयोग प्रारंभ हुआ। इससे मंदिरों में सुदृढ़ता एवं स्थायित्व आया।
मंदिरों के निर्माण की तकनीक एवं उसके स्वरूप पर कुछ ग्रंथ लिखे गए हैं जैसे- शिल्प-शास्त्र, वास्तु-शास्त्र, शिल्प-प्रकाश, मानसोल्लास, मानसार, वृहसंहिता, अपराजितपृच्छा, समरांगणसूत्रधार आदि।
मंदिरों की शैलियॉं:
- वास्तुशिल्पीय ग्रंथ शिल्पशास्त्र के अनुसार मंदिरों की तीन पृथक श्रेणियां है। मंदिर वास्तुकला को शैलीगत (बनावट के आधार पर) तथा क्षेत्रीय विविधता के आधार पर निम्नलिखित भागों में विभाजित किया गया है।
- नागर शैली (Nagar Style)
- द्रविड़ शैली (Dravid Style)
- बेसर शैली (Vesar Style)
नागर शैली (Nagara Style)-
हम देख रहे हैं कि पूरा देश 22 जनवरी 2024 को राम मंदिर में होने वाली प्राण प्रतिष्ठा का उत्सव मना रहा है। पर बहुत कम लोगों को यह पता हैकि, राम मंदिर नागर शैली (Nagara style) में बना हुआ है, उसकी विशेषता क्या–क्या होती हैं तथा इसकी शुरुआत कब से हुई है ?
- मंदिर वास्तुकला की वह शैली जो उत्तरी भारत में लोकप्रिय है, इसे नागर शैली (Nagara style) के रूप में जाना जाता है।
- इस प्रकार के मंदिरों को पत्थर के एक ऊंचे चबूतरे (जगती) पर बनाया जाता है जिनमें ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ (सोपान) होती है, उत्तरभारत में लगभग सभी मंदिरों के लिए यह सामान्य बात है।
- यह एक चौकोर (वर्गाकार) मंदिर होता है जिनमें प्रत्येक तल/ दीवार के मध्य भाग में क्रम से प्रक्षेपण निकले होते हैं जिसे रथ कहा जाताहै।
- प्रारंभ में दीवार को तीन क्षैतिज भागों में विभाजित किया जाता है जिन्हें त्रिरथ मंदिर कहा जाता है। बाद में पंचरथ, सप्तरथ और नवरथ मंदिर भी बनाए जाने लगे।
- शिखर ऊपर जाते हुए उत्तरोत्तर अंदर की ओर झुके हुए होते हैं और एक अंडाकार पट्टीका -जिनके किनारे उभरे हुए होते हैं- के द्वारा ढके होते हैं, इन्हें आमलक कहा जाता है।यह इसे उठान प्रदान करता है।
- इस प्रकार इस नागर शैली (Nagara style) की दो प्रमुख विशेषताएं हैं-
- क्रॉस आकार का तल विन्यास।
- वक्ररेखीय शिखर।
- इस नागर शैली (Nagara style) के मंदिरों में बाद के काल में ढका हुआ प्रदक्षिणपथ भी प्राप्त होता है ऐसे मंदिर कक्षासनों से युक्त होते थे, जिन्हें सान्धार मंदिर भी कहा जाता है।
- जिन मंदिरों में प्रदक्षिणापथ नहीं होते उन्हें निरंधार मंदिर कहा जाता है।
नागर शैली (Nagara style) के मंदिर के तीन उपप्रकार शिखर के आकार पर निर्भर करते हैं-
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रेखा प्रसाद या लैटिना (Rekha Prasad or Latina)
- यह सरल शिखर, सबसे सामान्य प्रकार का है, आधार वर्गाकार और इसकी दीवारों की ढलान ऊपर एक बिंदु पर चारों ओर से आकर मिलती है।
- इस प्रकार के शीर्ष को लैटिना (Latina) या शिखर का रेखा – प्रसाद कहा जाता है।
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फमसाना या पीढ़ा प्रकार
- फमसाना भवनों (मंदिरों) में शिखर लैटिना शिखरों की तुलना में अधिक चौड़े तथा कम ऊंचे होते हैं।
- इनके शिकार विभिन्न फलकों में बने हैं जो भवन के केंद्र के एक बिंदु पर धीरे-धीरे मिलते हैं, जबकि इसके विपरीत लैटिना शिखरों में तीव्र रूप से उठते हुए लंबे शिखर होते हैं। इस प्रकार से शीर्ष बिंदु की और सीधी रेखा में एक ढलान निर्मित करते हैं।
- कई उत्तर भारतीय मंदिरों में फमसाना या पीठा प्रकार को मंडप के लिए प्रयोग किया जा गया और गर्भगृह के लिए रेखा प्रकार या लैटिना प्रकार के शिखरों का प्रयोग किया गया है।
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वल्लभी प्रकार/ खाखर प्रकार (Vallabhi type)
- तल – विन्यास में आयताकार और गजपृष्ठाकर यह गुम्बदाकार कक्ष वाले छत होते हैं।
- इन्हें सामान्यत: डिब्बे के समान गुम्बदाकार छत वाले भवन कहा जाता है। उदाहरणत: जोगेश्वर का नंदी देवी या नवदुर्गा मंदिर।
नागर शैली (Nagara style) के अंतर्गत विकसित तीन उपशैलियाँ-
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उड़ीसा शैली (Odisha School)
- उड़ीसा के मंदिरों के मुख्य वास्तुशिल्पीय विशेषताएं तीन भागों में वर्गीकृत है- रेखा- देउल, पीढ़ा- देउल और खाखरा -देउल।
- मुख्य मंदिरों में से अधिकांश प्राचीन कालिंग- आधुनिक पुरी जिला, भुवनेश्वर या प्राचीन त्रिभुनेश्वर, पूरी और कोणार्क में प्राप्त होते हैं।
- उड़ीसा के मंदिर नागर शैली (Nagara style) के अंतर्गत एक अलग उपशैली में निर्मित हैं।
- सामान्य रूप से उड़ीसा में शिखर को देउल कहा जाता है।
- रेखा देउल का शिखर ऊपर की ओर बढ़ते हुए अंदर की ओर होता है तथा ऊपरी भाग थोड़ा वक्राकार होता है।
- यह लंबवत संरचना रथों (पगों) में विभाजित है, पूर्ण शिखर एवं दीवार अंदर के कटाव की दृष्टि से वर्गाकार है किंतु मस्तक वाला भाग वृताकार है।
- मंडप को उड़ीसा में जगमोहन कहा जाता है।
- मुख्य मंदिर समानता वर्गाकार होता है।
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उड़ीसा के मंदिरों के शेष लक्षण है-
- नटमंडप
- भोगमंडपों का विकास
- चौकोर कक्ष जो अंदर से सादे हैं व बाहर की तरफ विलक्षण अलंकार से सुशोभित है।
- उड़ीसा के मंदिर समान्यत: चहारदीवारी या परकोटे से घिरे होते हैं। उदाहरणत: कोणार्क मंदिर, जगन्नाथ मंदिर, लिंगराज मंदिर।
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खजुराहो/ चंदेल शैली (Khujuraho/ Chandel school)
- बुंदेलखंड के चंदेल राजाओं के अंतर्गत 10वीं और 11वीं सदी में वास्तुकला की एक महान विद्या विकसित हुई।
- इस शैली का एक उदाहरण खजुराहो मंदिर का समूह मध्य प्रदेश में है।
- एक सर्वोत्कृष्ट शैव मंदिर, कंदरिया महादेव मंदिर के रूप में जाना जाता है, जिसका निर्माण चंदेल नरेश गंड द्वारा लगभग 1000 ई. के आस पास करवाया गया था।
- सभी मंदिर पूर्व से पश्चिम की ओर एक ही धुरी पर निर्मित है, जो ज्यादा बड़ी नहीं है जबकि उड़ीसा में यह अलग-अलग तत्व के रूप में ड्यूढी द्वारा जुड़े हुए हैं।
- समस्त मंदिरों में अर्धमंडप, मंडप, अंतराल व गर्भगृह है बाद में महामंडपों का विकास भी दिखता है।
- मंदिर में गर्भगृह तक जाने के लिए एक छोटा गलियारा होता है जिसको अंतराल कहा जाता है।
- मंदिर निर्माण में पंचायत शैली का प्रयोग किया गया है।
- गर्भगृह पर निर्मित शिखर सबसे ऊंचा है जो उतुंग श्रृंगों (लघु शिखर) की श्रेणियां से बना है। जो एक के बाद एक ऊपर नीचे होते हुए ऊंचान की ओर बढ़ते हुए गर्भगृह पर निर्मित शिखर में निहित हो जाते हैं।
- अलग-अलग भागों की छतें भी अलग-अलग है- अर्धमंडप का शिखर सबसे नीचा और मंडप, अंतराल एवं गर्भगृह के शिखर क्रमशः ऊँचे होते गए हैं और इसे एक पहाड़ी श्रृंखला का स्वरूप प्रदान करते हैं।
- खजुराहो के मंदिरों को भी इसकी व्यापक कामुक मूर्तियों के लिए जाना जाता है-
- कामुक अभिव्यक्ति को आध्यात्मिक खोज के रूप में मानव अनुभव के समान महत्व दिया जाता है और इसे एक संपूर्ण ब्रह्मांडीय हिस्से के रूप में देखा जाता है।
- इसीलिए कई हिंदू मंदिरों पर मिथुन मूर्तियों (आलिंगनबद्ध जोड़े) को मांगलिक चिह्न के रूप में बनाया गाया है।
- आमतौर पर, ये मंदिर के प्रवेश द्वार पर या बाहरी दीवारों पर या मंडप और मुख्य मंदिर के बीच की दीवारों पर भी उत्त्कीर्ण किए गए हैं।
- कुछ इतिहासकार इन मिथुन मूर्तियों की उपस्थिति को सामंती प्रभाव का लक्षण मानते हैं तो कुछ इस तांत्रिक प्रभाव मानते हैं।
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सोलंकी/ चालुक्य शैली (Solanki School)
- गुजरात के चालुक्य (सोलंकी) राजाओं ने वास्तुकला की इस विधा को संरक्षण प्रदान किया जो 11वीं से 13वीं सदी के मध्य विकसित हुई।
- माउंट आबू के विमल, तेजपाल और वस्तुपाल मंदिर इस शैली का प्रदर्शन करते हैं।
- इस शैली की सबसे उत्कृष्ट विशेषता इसका बारीक और सुंदर अलंकरण है।
- मोढेरा का सूर्य मंदिर 11वीं सदी के पूर्वार्ध का है और 1026 ईस्वी में सोलंकी वंश के राजा भीमदेव- प्रथम द्वारा बनवाया गया था। सोलंकी परवर्ती चालुक्यों की एक शाखा थी।
- ऊंची जगती पर खड़ा यह मंदिर तीन भागों में विभाजित है- इनमें
- प्रदक्षिणपथ सहित गर्भगृह, अंतराल, एक बंद मंडप तथा गूढ़मंडप युक्त मंदिर की व्यवस्था।
- सभा – मंडप एवं तोरण
- छोटे-छोटे मंदिरों से सुसंबद्ध सीढ़ीदार तालाब है, जिसे सूर्यकुंड कहा जाता है। इस तरह के कुंड पवित्र वस्तु का हिस्सा थे जिस पर उस समय बहुत अधिक ध्यान दिया गया और 11वीं शताब्दी तक वे कई मंदिरों का एक अभिन्न अंग बन गए थे।
- 100 वर्ग मीटर क्षेत्रफल का यह आयताकार तालाब भारत के भव्य मंदिर कुंडों में से एक है।
- 108 लघु मंदिर, कुंड की सीढ़िया पर बने हुए हैं।
- सभा – मंडप का विन्यास विकर्णीय है जिसमें प्रवेश करने के लिए एक विशाल अलंकृत तोरण बनाया गया है जो सभी ओर से खुला हुआ है। यह उसे समय के पश्चिमी और मध्य भारत के मंदिरों में एक परंपरा बन गई थी।
- गुजरात की काष्ट नक्काशी की परंपरा का प्रभाव भव्य नक्काशी और मूर्ति कला के कार्यो में स्पष्ट है। हालांकि, केंद्रीय लघु मंदिर की दीवारें नक्काशी रहित है।
- मंदिर का मुहाना पूर्व की ओर होने के कारण सादा छोड़ दिया गया है, प्रत्येक वर्ष विषवों के समय सूर्य केंद्रीय मंदिर पर सीधा चमकता है।
सूर्य मंदिर:
सूर्य मंदिर, मोढ़ेरा
- यह मंदिर गुजरात के मोढ़ेरा में स्थित है।
- इस मंदिर का निर्माण सम्राट भीमदेव सोलंकी प्रथम ने करवाया था।
- सोलंकी सूर्यवंशी थे, वे सूर्य को कुलदेवता के रूप में पूजते थे। इसलिए उन्होंने अपने आराध्य देवता की आराधना के लिए एक भव्य सूर्य मंदिर बनवाया।
- भारत में तीन सबसे प्राचीन सूर्य मंदिर है जिसमें पहला उड़ीसा का कोणार्क मंदिर, दूसरा जम्मू में स्थित मार्तंड मंदिर और तीसरा गुजरात के मोढ़ेरा का सूर्य मंदिर।
कोणार्क सूर्य मंदिर
- उड़ीसा राज्य में पुरी के निकट कोणार्क का सूर्य मंदिर स्थित है।
- कोणार्क सूर्य मंदिर सूर्य देवताओं को समर्पित है।
- रथ के आकार में बनाया गया यह मंदिर भारत की मध्यकालीन वास्तुकला का अनोखा उदाहरण है।
- इस सूर्य मंदिर का निर्माण राजा नरसिंह देव ने 13वीं शताब्दी में कराया था।
- मंदिर अपने विशिष्ट आकार और शिल्प कला के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है।
- हिंदू मान्यता के अनुसार सूर्य देवता के रथ में 12 जोड़ी पहिए है और रथ को खींचने के लिए उसमें सात घोड़े जुटे हुए हैं।
- रथ के आकार में बने कोणार्क के इस मंदिर में पत्थर के पहिए और घोड़े हैं।
मार्तंड सूर्य मंदिर
- यह मंदिर जम्मू एवं कश्मीर राज्य के पहलगाम के निकट अनंतनाग में स्थित है।
- इस मंदिर का निर्माण मध्यकालीन युग में 7वीं से 8वीं शताब्दी के दौरान हुआ था।
- सूर्य राजवंश के राजा ललितादित्य ने इस मंदिर का निर्माण एक छोटे से शहर अनंतनाग के पास एक पत्थर के ऊपर किया था।
- इसकी गणना ललितादित्य के प्रमुख कार्यों में की जाती है।
- इसमें 84 स्तंभ है जो नियमित अंतराल पर रखे गए हैं।
- मंदिर को बनाने के लिए चुने के पत्थर की चौकोर ईटों का उपयोग किया गया है, जो उस समय के कलाकारों की कुशलता को दर्शाता है।
बेलाउर सूर्य मंदिर
- बिहार के भोजपुर जिले के बेलाउर गांव के पश्चिमी एवं दक्षिणी छोर पर अवस्थित बेलाउर सूर्य मंदिर काफी प्राचीन है। इस मंदिर का निर्माण राजा सुबा ने करवाया था।
- राजा द्वारा बनवाया 52 पोखरों में एक पोखर के मध्य यह सूर्य मंदिर स्थित है।
झालरापाटन सूर्य मंदिर
- झालावाड़ का दूसरा जुड़वा शहर झालरापाटन को सिटी ऑफ वेल्स यानी घाटियों का शहर भी कहा जाता है।
- शहर के मध्य स्थित सूर्य मंदिर झालरापाटन का प्रमुख दर्शनीय स्थल है।
- वास्तुकला की दृष्टि से भी यह मंदिर अहम है। इसका निर्माण 10वीं शताब्दी में मालवा के परमार वंशीय राजाओं ने करवाया था।
- मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की प्रतिभा विराजमान है।
- इसे पद्मनाभ मंदिर भी कहा जाता है।
औंगारी सूर्य मंदिर
- नालंदा का प्रसिद्ध सूर्य धाम औंकारी और बड़गांव के सूर्य मंदिर देश भर में प्रसिद्ध है।
कहा जाता है कि भगवान कृष्ण के वंशज साम्ब कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। इसलिए उसने 12 जगहों पर भव्य सूर्य मंदिर बनवाए थे और भगवान सूर्य की आराधना की थी। ऐसा कहा जाता है की तब साम्ब को कुष्ठ से मुक्ति मिली थी। उन्ही 12 मंदिरों में औंकारी सूर्य मंदिर एक है।
- अन्य सूर्य मंदिरों में देवार्क, लोलार्क, पुण्यार्क, कोणार्क, चाणार्क आदि शामिल है।
उन्नाव का सूर्य मंदिर
- उन्नाव के सूर्य मंदिर का नाम बह्मन्य देव मंदिर है।
- यह मध्य प्रदेश के उन्नाव (दतिया के निकट) में स्थित है।
- इस मंदिर में भगवान सूर्य की पत्थर की मूर्ति है, जो एक ईट से बने चबूतरे पर स्थित है। जिस पर काले धातु की परत चढ़ी हुई है। साथ ही साथ 21 कलाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले सूर्य के 21 त्रिभुजाकार प्रतीक मंदिर पर अवलंबित है।
रणकपुर सूर्य मंदिर
- राजस्थान के रणकपुर नामक स्थान पर अवस्थित यह सूर्य मंदिर, नागर शैली में सफेद संगमरमर से बना है।
- यह सूर्य मंदिर जैन अनुयायियों के द्वारा बनवाया गया था।
रांची सूर्य मंदिर
- रांची से 39 किलोमीटर की दूरी पर रांची टाटा रोड पर स्थित यह सूर्य मंदिर बुंडू के समीप है।
- संगमरमर से निर्मित इस मंदिर का निर्माण 18 पहियों और 7 घोड़ों के रथ पर विद्दमान भगवान सूर्य के रूप में किया गया है।
कटारमल सूर्य मंदिर: उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कटारमल नामक स्थान पर अवस्थित है।
अरसवल्ली सूर्य मंदिर: अरसवल्ली आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले में अवस्थित है।
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