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UTTARAKHAND TUNNEL COLLAPSE AND HIMALAYAN ECOSYSTEM UPSC 2024

uttarakhand tunnel collapse

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 उत्तराखंड सुरंग दुर्घटना(UTTARAKHAND TUNNEL COLLAPSE) में 40 श्रमिक सुरंग के अंदर फंस गए हैं, उन्हें निकालने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (The National Disaster Response Force) और राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष (State Disaster Response Fund) कोशिश कर रही है। यह घटना सुरंग निर्माण के विषय में चिंताएं बढ़ती है, साथ ही संभावित कारणों और निवारक उपायों की बारीकी से जांच करने के लिए प्रेरित करती है। निर्माणाधीन सिल्कयारा सुरंग के नाम से जाना जाता है, जो उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में यमनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है।इससे पहले भी  अक्टूबर 2023 के आरंभ में सिक्किम में तीस्ता बांध का टूटना तथा हिमाचल प्रदेश में हाल ही में आई बाढ़ और भूस्खलन कीघटनाएं इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं कि हमारा विकास प्रारूप हमारे पर्यावरण एवं पारिस्थितिक पर, विशेषकर पर्वतीय क्षेत्रों( HIMALAYAN ECOSYSTEM) में किस सीमा तक आपदा लेकर आ रहा है।

सुरंग खुदाई तकनीक:

ड्रिल और ब्लास्ट विधि(DBM) : इसमें चट्टान में छेद करना और उसे तोड़ने के लिए विस्फोटकों का उपयोग करना शामिल है। चुनौती पूर्ण क्षेत्र के कारण हिमालय (जम्मू कश्मीर और उत्तराखंड) जैसे क्षेत्रों में प्राय: DBM का उपयोग किया जाता है।

टनल बोरिंग मशीनें(TBM) : यह पूर्वनिर्मित कंक्रीट खंडों के साथ सुरंग को पीछे से सहारा देते हुए चट्टान में छेद करती है। यह अधिक महंगा लेकिन सुरक्षित तरीका है। TBM का उपयोग तब आदर्श माना जाता है जब चट्टान का आवरण 400 मीटर तक ऊंचा हो। दिल्ली मेट्रो के लिए भूमिगत सुरंगे TBM का उपयोग करके कम गहराई पर खोदी गई है।

हाल के दिनों में पहाड़ी इलाकों में बुनियादी ढांचे के विकास पर जोर देने के साथ सुरंगों की आवश्यकता बढ़ गई है(उदाहरण के लिए- अरूणाचलप्रदेश बुनियादी ढांचा विकास)।सुरंगे सीमावर्ती क्षेत्रों को गोला-बारूद और सैन्य ठिकां। ( उदाहरण के लिए, उत्तराखंड चार धाम परियोजना )से जोड़कर राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने में भी मदद करती हैं। सुरंगें माल के परिवहन की लॉजिस्टिक लागत को भी कम करती हैं।(उदाहरण के लिए-लॉजिस्टिक प्रदर्शन सूचकांक में हिमाचल प्रदेश की बेहतर रैंकिंग)

चार-धाम परियोजना क्या है,जो हाल ही में उत्तराखंड में सुरंग ढहने से चर्चा में हैं ?

भारत सरकार द्वारा साल 2016 में शुरू की गई महत्वपूर्ण चार धाम परियोजना में उत्तराखंड के चार तीर्थ स्थल- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री के बीच संपर्क में सुधार करने के लिए जिससे यात्रा जल्दी, सुलभ और दुर्घटना रहित और सुविधाजनक हो सके और इस परियोजना के अंतर्गत लगभग 885 किलोमीटर के राष्ट्रीय और राज्य मार्गों को चौड़ा किया जाएगा।

धार्मिक महत्व: चार धाम परियोजना में आने वाले तीर्थ स्थल बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री हिंदू धर्म में धार्मिक और सनातन महत्व रखते हैं। प्राचीन समय से ऐसा माना जाता है कि चार धाम यात्रा करने से लोगों की सभी दुख- दर्द और पिछले जन्म और इस जन्म में किए गए गलत कर्मों का नाश हो जाता है, और उन्हें मुक्ति मिल जाती है (आध्यात्मिक शांति)।

राष्ट्रीय सुरक्षा में भूमिका: यह परियोजना रणनीतिक सड़कों के रूप में कार्य कर सकती हैं, जो भारत-चीन सीमा को अन्य राज्य (पंजाब,उत्तर प्रदेश,) में मौजूद सेना के शिविरों से जोड़ती है जहॉं मिसाइल बेस और भारी मशीनरी मौजूद हैं।

Uttarakhand Tunnel Collapse

आर्थिक महत्व:

यह न केवल एक धार्मिक यात्रा है बल्कि उत्तराखंड के लिए एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और पर्यटन कार्यक्रम भी है जो पूरे भारत और दुनिया भर से पर्यटकों को आकर्षित करती है।
यह स्थानीय समुदायों के लिए महत्वपूर्ण है जो रोजगार के अवसर प्रदान करती है और क्षेत्र में पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देती है।

भारत के महत्वपूर्ण सुरंग

 

हिमालय पारिस्थितिकी (HIMALAYAN ECOSYSTEM) तंत्र की बढ़ती भेद्दता के कारण:

भूकंप- भूकंप का हिमालय पारिस्थितिकी(HIMALAYAN ECOSYSTEM) तंत्र पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। यह क्षेत्र भूकंपीय रूप से सक्रिय क्षेत्र में स्थित है और इसलिए यहां अक्सर भूकंप आने का खतरा रहता है। भूकंप हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र पर कई अन्य प्रकार के आपदा कारक प्रभाव (जैसे- भूस्खलन हिमस्खलन आदि) डाल सकता है।

जलवायु परिवर्तन का खतरा- हिमालय वैश्विक औसत की तुलना में तेज गति से गर्म हो रहा है, जिसके कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं, बर्फ का आवरण काम हो रहा है और चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति तथा गंभीरता बढ़ रही है। इसका क्षेत्र के जल विज्ञान, जैव विविधता और कृषि पर उल्लेखनीय प्रभाव पड़ रहा है।

जनसंख्या का बढ़ता दबाव- हिमालय कई मूल्यवान प्राकृतिक संसाधनों, जैसे- वन, जल और खनिजों के मामले में समृद्ध है। बढ़ती आबादी की मांगों को पूरा करने के लिए इन संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया जा रहा है, जिससे पारिस्थितिक तंत्र पर और अधिक दबाव पड़ रहा है।

बढ़ता शहरीकरण- शहरीकरण का हिमालय परिस्थितिक तंत्र (HIMALAYAN ECOSYSTEM) पर उल्लेखनीय प्रभाव पड़ रहा है। इस क्षेत्र में तेजी से शहरीकरण हो रहा है, अगले 20 वर्षों में हिमालयी शहरों की आबादी दुगनी होने का अनुमान है। यह तीव्र वृद्धि क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों और बुनियादी ढांचे पर दबाव डाल रही है।

जल विद्युत परियोजनाओं में अंधाधुंध बढ़ोत्तरी- जल विद्युत परियोजनाओं का हिमालय पारिस्थितिकी तंत्र (HIMALAYAN ECOSYSTEM) पर उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है। इन परियोजनाओं के लिए बड़े जलाशयों के निर्माण हेतु विशाल भूमि की आवश्यकता होती है, जिससे पर्यावरण की हानि होती है इसके अलावा परियोजना नदी के प्रभाव में भी व्यवधान डालती है।

वन संसाधनों का दोहन- वन संसाधनों के निरंतर दोहन से हिमालय पारिस्थितिक तंत्र (HIMALAYAN ECOSYSTEM) पर कई नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं, जिनमें मिट्टी के कटाव में वृद्धि तथा जल उपलब्धता में कमी इत्यादि शामिल है।
गैर धारणीय कृषि एवं पशुपालन- गैर धारणीय कृषि के हिमालय पारिस्थितिक तंत्र (HIMALAYAN ECOSYSTEM) पर कई नकारात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं, जिनमें मिट्टी का कटाव तथा जल प्रदूषण इत्यादि शामिल है।

जैव विविधता को खतरा- हिमालय पारिस्थितिकी(HIMALAYAN ECOSYSTEM) तंत्र विश्व के सबसे अधिक जैव विविधता वाले क्षेत्रों में से एक है, जो 50000 से अधिक पौधों की प्रजातियों 2500 पक्षियों की प्रजातियों और 400 स्तनपाई प्रजातियों का आवास है। हालांकि इस जैव विविधता के समक्ष कई खतरे भी है, जैसे- अतिचारण, अवैध वन्यजीव व्यापार एवं आक्रामक प्रजातियां आदि।

अवैध शिकार- अवैध शिकार हिमालयी पारिस्थितिकी (HIMALAYAN ECOSYSTEM) तंत्र के लिए एक बड़ा खतरा है। शिकारी हिम तेंदुए, लाल पांडा, कस्तूरी मृग और हिमालय तहर सहित कई प्रकार की प्रजातियां को लक्षित करते हैं। इन प्रजातियों का अक्सर उनके फर, शरीर और अंगों या मांस के लिए शिकार किया जाता है। अवैध शिकार के हिमालय पारिस्थितिकी (HIMALAYAN ECOSYSTEM) तंत्र पर कई नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं, जिनमें सबसे प्रमुख है खाद्य श्रृंखलाओं का बाधित होना। उदाहरण के लिए हिम तेंदुए शीर्ष शिकारी होते हैं, जिसका अर्थ है कि वह नीली भेड़ और आइबेक्स जैसे शाकाहारी जानवरों की आबादी को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (Environmental Impact Assessment) व्यवस्था की सीमाएं:

क्षेत्र विशिष्ट पर्यावरणीय प्रभाव आकलन प्रणाली किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र या क्षेत्र के भीतर प्रस्तावित परियोजना, योजना या नीति के संभावित पर्यावरणीय प्रभाव के मूल्यांकन की प्रक्रिया को संद

र्भित करती है।
इस प्रणाली के विकास के माध्यम से यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जाना चाहिए कि किसी परियोजना को मंजूरी देने या लागू करने से पहले किसी भी संभावित पर्यावरणीय प्रभाव की पहचान की जाए, उसका आकलन किया जाए और उसे प्रभाव को कम किए जाने हेतु आवश्यक कदम उठाए जाएं।
भारत में वर्तमान पर्यावरणीय प्रभाव आकलन व्यवस्था की कई सीमाएं हैं जिनमें निम्नलिखित शामिल है।

नियमों के प्रभावी प्रवर्तन का अभाव- भारतीय पर्यावरणीय प्रभाव आकलन(EIA) व्यवस्था की प्रमुख आलोचनाओं में से एक इससे संबंधित नियमों का कमजोर प्रवर्तन है। परियोजनाएं अक्सर निर्धारित पर्यावरणीय सुरक्षा उपायों को पूरा किए बिना आगे बढ़ती है, जिससे पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

समिति सार्वजनिक भागीदारी- सार्वजनिक भागीदारी, पर्यावरणीय प्रभाव आकलन प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण पहलू है, परंतु भारत में इसके अक्सर प्रतीकात्मक होने और सार्वजनिक इनपुट के लिए सार्थक मार्ग प्रदान नहीं करने के कारण इसकी आलोचना की जाती है। कई हितधारकों, विशेष रूप से स्थानीय समुदायों और प्रभावित समूह के पास अपनी चिताओं को प्रभावी ढंग से व्यक्त करने के लिए जानकारी या अवसरों तक सीमित पहुंच है।

संचयी प्रभावों का अपर्याप्त आकलन- पर्यावरणीय प्रभाव आकलन प्रक्रिया किसी क्षेत्र पर पड़ने वाले संचयी प्रभावों पर विचार करने के बजाय व्यक्तिगत परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित करती है। इससे पर्यावरणीय प्रभाव समग्र आकलन नहीं हो पाता है।

अपर्याप्त विशेषज्ञता और क्षमता- नियामक अधिकारियों के भीतर सीमित विशेषज्ञता और क्षमता के परिणामस्वरुप पर्यावरण मूल्यांकन की गुणवत्ता के संबंध में चिंताएं उत्पन्न होती है।

पारदर्शी और सुलभ जानकारी का अभाव- प्रस्तावित परियोजनाओं और उनके पर्यावरणीय आकलन के बारे में प्रासंगिक जानकारी तक पहुंच अक्सर सीमित होती है, जिससे जनता के लिए निर्णय लेने की प्रक्रिया में प्रभावी ढंग से भाग लेना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

आकलन का सीमित दायरा- पर्यावरणीय प्रभाव आकलन प्रक्रिया मुख्य रूप से पर्यावरणीय प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करती है तथा कभी-कभी पर्यावरण से जुड़े सामाजिक और आर्थिक पहलुओं की उपेक्षा हो जाती है।

हितों का टकराव- हितों के संभावित टकराव को लेकर भी चिंताएं व्यक्त की जाती हैं। कई बार ऐसा देखा जाता है कि पर्यावरणीय प्रभाव आकलन करने के लिए उत्तरदायी सलाहकारों को परियोजना प्रस्तावक द्वारा काम पर रखा जाता है और भुगतान किया जाता है। इससे मूल्यांकन की निष्पक्षता और स्वतंत्रता से समझौता हो सकता है।

आप पर्याप्त निगरानी तथा अनुपालन- परियोजनाओं को पर्यावरणीय मंजूरी मिलने के पश्चात् निगरानी की प्रभावशीलता में कमी तथा मंजूरी में निर्धारित शर्तों का अनुपालन सुनिश्चित न करने के कारण पर्यावरणीय हित प्रभावित होते हैं।

असंगत निर्णय लेना- विभिन्न राज्य और केंद्र प्राधिकरणों द्वारा अलग-अलग व्याख्याओं और निर्णय के उदाहरण सामने आए हैं, जिससे पर्यावरणीय नियमों के अनुप्रयोग में विसंगतियां उत्पन्न हुई है।

क्षेत्र विशिष्ट पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) व्यवस्था स्थापित करने के समक्ष चुनौतियां:

क्षेत्र विशिष्ट पर्यावरणीय प्रभाव आकलन(EIA) व्यवस्था को लागू करना एक जटिल कार्य हो सकता है, जिसमें विभिन्न चुनौतियों का समाधान करना आवश्यक है। क्षेत्र विशिष्ट पर्यावरण प्रभाव आकलन(EIA) व्यवस्था लागू करते समय निम्नलिखित प्रमुख चुनौतियां उत्पन्न हो सकती है।

विविध पर्यावरणीय संदर्भ- विभिन्न क्षेत्रों में अद्वितीय पर्यावरणीय विशेषताएं होती हैं, जैसे पारिस्थितिक तंत्र, जैव विविधता, जलवायु और भू वैज्ञानिक स्थितियां। इन विशिष्टताओं को ध्यान में रखने वाली पर्यावरणीय के प्रभाव आकलन व्यवस्था को डिजाइन करना चुनौती पूर्ण हो सकता है।

कानूनी एवं नियामक ढांचा- क्षेत्र की विशिष्ट आवश्यकताओं और स्थितियों के अनुरूप कनूनी और नियामक ढांचे को अपनाना या बनाना जटिल हो सकता है। इसमें पर्यावरणीय प्रभाव आकलन व्यवस्था के दायरे को परिभाषित करना, मूल्यांकन के मानदंड और विभिन्न हितधारकों की भूमिकाएं और जिम्मेदारियां शामिल हैं।

क्षमता निर्माण- यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि संबंधित अधिकारियों, पेशेवरों और हितधारकों के पास पर्यावरणीय प्रभाव आकलन व्यवस्था(EIA) के संचालन और समीक्षा के लिए आवश्यक कौशल और विशेषज्ञता हो। इसके लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों तथा क्षमता निर्माण करना कठिन कार्य है।

डेटा उपलब्धता और गुणवत्ता- पर्यावरणीय डेटा की उपलब्धता एवं विश्वसनीयता एक बड़ी चुनौती हो सकती है, विशेषकर समिति निगरानी वाले बुनियादी ढांचे वाले क्षेत्रों में। संपूर्ण मूल्यांकन करने के लिए सटीक और अधिकतम जानकारी का होना महत्वपूर्ण है।

वित्तपोषण एवं संसाधन- कर्मचारीयों, उपकरणों और प्रौद्योगिकी सहित पर्यावरणीय प्रभाव आकलन(EIA) प्रक्रिया के लिए पर्याप्त वित्तपोषण एवं संसाधनों को सुरक्षित करना भी एक महत्वपूर्ण चुनौती हो सकती है।

क्षेत्रीय विशिष्ट पर्यावरणीय प्रभाव आकलन(EIA) व्यवस्था के लाभ:

सटीक पूर्वानुमान- किसी क्षेत्र के विशिष्ट स्थितियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए किया जाने वाला मूल्यांकन, संभावित पर्यावरणीय प्रभावों का अधिक सटीक पूर्वानुमान प्रदान कर सकता है, जिसमें मृदा, जल, वायु गुणवत्ता, जैव विविधता और सांस्कृतिक विरासत से संबंधित प्रभाव शामिल है।

संवेदनशील क्षेत्रों का संरक्षण- एक क्षेत्र-विशिष्ट पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) प्रणाली किसी क्षेत्र के भीतर विशेष रूप से संवेदनशील क्षेत्रों (जैसे- आर्द्रभूमि) की पहचान और सुरक्षा करने में मदद कर सकती है। इससे महत्वपूर्ण पारिस्थितिक और सांस्कृतिक संसाधनों को सुरक्षित करने में मदद मिल सकती है।

आवश्यक कदम:

कानूनी और नियामक ढांचे का मूल्यांकन- क्षेत्र में पर्यावरण मूल्यंकन से सम्बंधित मौजूदा कानूनी और नियामक ढांचे को समझना आवश्यक है।इसमें राष्ट्रीय, राज्य/प्रांतीय और स्थानीय कानून शामिल हैं।

क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण- पर्यावरणीय  प्रभाव आकलन प्रक्रिया में शामिल प्रासंगिक सरकारी अधिकारियों, सलाहकारों और हितधारकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम विकसित और कार्यान्वित किया जाना जरूरी है।

सार्वजनिक परामर्श और भागीदारी- पर्यावरणीय प्रभाव आकलन प्रक्रिया में सार्वजनिक भागीदारी के लिए तंत्र स्थापित करना चाहिए। इसमें सार्वजनिक सुनवाई, परामर्श बैठकें और लिखित टिप्पणियों को शामिल किया जा सकता है।

तकनीकी विशेषज्ञता एवं समीक्षा- यह सुनिश्चित करना होगा कि पर्यावरणीय प्रभाव आकलन की समीक्षा करने तथा तकनीकी इनपुट प्रदान करने के लिए योग्य विशेषज्ञ उपलब्ध हों ।

निगरानी और प्रवर्तन- शमन उपायों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए परियोजनाओं की अनुमोदन पश्चात निगरानी हेतु एक प्रणाली स्थापित करने की आवश्यकता है। गैर अनुपालन के लिए दंड और प्रवर्तन तंत्र को परिभाषित करना भी आवश्यक है।
भारत में पर्यावरणीय प्रभाव आकलन प्रक्रिया: कानूनी और नीतिगत ढांचा

भारत में पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) प्रक्रिया के नियामक ढांचे का उद्देश्य प्रस्तावित परियोजना के संभावित पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन करना और सतत विकास सुनिश्चित करना है । यह विभिन्न कानूनों, नीतियों और दिशानिर्देश द्वारा शासित होता है, जो निम्नलिखित हैं-

पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986- यह भारत में पर्यावरण संरक्षण के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करने वाला प्राथमिक कानून है यह केंद्र सरकार को पर्यावरण की सुरक्षा और गुणवत्ता में सुधार के लिए अधिकार देता है।

पर्यावरणीय प्रभाव आकलन नियम 1994- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 1994 में पर्यावरणीय प्रभाव आकलन नियमों को अधिसूचित किया है। ये नियम विभिन्न विकास परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आकलन करने हेतु प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को रेखांकित करते हैं। पर्यावरण में प्रभाव आकलन नियम अधिसूचना उन विकासात्मक गतिविधियों की एक सूची प्रदान करती है जिनके लिए केंद्र सरकार या राज्य/केंद्र शासित प्रदेश स्तर के पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण(SEIAA/UEIAA) से पूर्व पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता होती है।

पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अधिसूचना 2006- पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अधिसूचना, 1994 को पर्यावरण में प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था। इसका उद्देश्य प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना और इसे और अधिक व्यापक बनाना था। इसने परियोजनाओं को उनके संभावित पर्यावरणीय प्रभाव के आधार पर विभिन्न श्रेणियां (श्रेणी ‘A’ और श्रेणी ‘B’) में वर्गीकृत किया है।

श्रेणी ‘A’- (राष्ट्रीय स्तरीय मूल्यांकन): में विकासात्मक परियोजनाओं का मूल्यांकन प्रभाव आकलन एजेंसी और विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति द्वारा किया जाता है।

श्रेणी ‘B’- (राज्य स्तरीय मूल्यांकन): इस श्रेणी की विकासात्मक परियोजनाओं को राज्य स्तरीय पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण और राज्य स्तरीय विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति द्वारा मंजूरी प्रदान की जाती है।

राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2006- यह नीति भारत में पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास के लिए व्यापक सिद्धांतों और दिशा निर्देशों की रूपरेखा तैयार करती है।

पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अधिसूचना 2020 – पर्यावरणीय प्रभाव आकलन प्रक्रिया को और मजबूत करने और कुछ कमियों को दूर करने के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 को 2020 के संशोधित किया गया था। संशोधित अधिसूचना में सार्वजनिक भागीदारी, मंजूरी के बाद की निगरानी और रिपोर्टिंग आवश्यकताओं से संबंधित परिवर्तन प्रस्तुत किए गए।

आगे की राह:

मंत्रालय को सार्वजनिक परामर्श के लिए समय को कम करने के बजाय सूचना तक पहुंच सुनिश्चित करने के साथ-साथ जन सुनवाई केबारे में जागरूकता और संपूर्ण (EIA) प्रक्रिया पर इसके प्रभाव के बारे में ध्यान देना चाहिए।

इसे ऑफ डूइंग बिजनेस में सुधार के लिए सरकार को पर्यावरणीय मंजूरी देने में औसतन 238 दिनों की देरी को कम करना चाहिए, जोनौकरशाही की देरी और जटिल कानून के कारण उत्पन्न होती है।

अधिक कुशल निरीक्षण, रखरखाव तथा संभावित मुद्दों का शीघ्र पता लगाने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, ड्रोन अथवा रोबोटिक्स जैसी नवीन तकनीकों का अन्वेषण किया जाना चाहिए।

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