आधुनिक पश्चिमी के उद्भव में धर्म सुधार आंदोलन  की विशिष्ट भूमिका रही क्योंकि इसने प्रचलित दो मध्ययुगीन संस्थाओं यथा, सर्वव्यापी चर्च व्यवस्था एवं पवित्र रोमन साम्राज्य में दरारें उत्पन्न कर दी।

16वीं शताब्दी में जो धर्म सुधार आंदोलन हुए, उन्हें सही अर्थों में पुनर्जागरण का ही विस्तार कहा जा सकता है।

इस समय सामंतवाद औरउससे जुड़ी आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक एवं राजनीतिक मान्यताएँ कमजोर हो रही थी। लेकिन धर्म एवं चर्च का प्रभाव अभी भी स्थायीबना हुआ था।

यूरोप में पुनर्जागरण के समानांतर एक और सुधार आंदोलन का सूत्रपात हुआ, जिसे इतिहास में धर्म सुधार आंदोलन के नाम से जानाजाता है। 

मध्यकाल में ईसाई धर्म दो प्रमुख शााखाओं  –रोमन कैथोलिक चर्च और पूर्वी ऑर्थोडॉक्स चर्च में विभाजित हो गया था। 

15वीं एवं 16वीं सदी में चर्च के अंतर्गत अनेक बुराइयाँ व्याप्त थी

जैसे- पादरियों की अज्ञानता और विलासिता, चर्च के पदों एवं सेवाओं की बिक्री, संबंधियों द्वारा एक से अधिक पद पर बने रहना आदि। यह सभी बुराइयाँ बढ़ते असंतोष एवं शिकायत की परिणाम थी।

पुनर्जागरण के कारण प्रांतीय भाषाओं का उदय हुआ और राष्ट्रीयता की भावना प्रबल हुई। अन्य देशों के राष्ट्रवादियों (Nationalists) के लिए रोम स्थिति पोप एक विदेशी था।

सबसे अधिक धार्मिक बुराइयां उत्तरी जर्मनी में थी, इसका कारण था शक्तिशाली राजतंत्र की अनुपस्थिति।

यद्यपि प्रोटेस्टेंड आंदोलन के तीन संप्रदायों के नेता और उनके सिद्धांत अलग-अलग थे तथापि ये तीनों संप्रदाय कुछ आधारभूत मुद्दों पर सहमत थे।  

16वीं सदी के आरंभ में जर्मनी में धर्म सुधार आंदोलन के प्रारंभ होने के लिए अनुकूल परिस्थितियों उत्पन्न हो चुकी थी। 

केवल एक बेहतर नेतृत्व की आवश्यकता थी, जो उसे एक सही दिशा दे सके। ऐसी ही परिस्थिति में मार्टिन लूथर का उदय हुआ 

मार्टिन लूथर (1483-1546) का जन्म जर्मनी के एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। 

जिस समय जर्मनी में लूथर का उदय हुआ, उसी समय स्विट्जरलैंड में ज्विंगली नामक सुधारक का अविर्भाव हुआ। प्रोटेस्टेंट आंदोलन का तीसरा गुट ज्युगलवादी था  

प्रोटेस्टेंट धर्म की स्थापना में लूथर के बाद जॉन केल्विन का नाम आता है। 

इस प्रकार धर्म सुधार आंदोलन के विविध दुरगामी परिणाम हुए। इससे यूरोप में नए युग की चेतना का विकास हुआ।